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मायावती के प्रधानमंत्री पद के दावे की कमजोरियां !

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मायावती-mayawati

नई दिल्ली।बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती जिन नेताओं और राजनीतिक समीकरणों के भरोसे पर केंद्र में प्रधानमंत्री पद की कुर्सी का ख्वाब देख रही हैं, क्या वह मायावती को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए उनके साथ खड़े होंगे? मायावती के सामने दल बदल का खतरा है क्योंकि बसपा में ऐसे कई अवसरवादी लोकसभा सदस्य होंगे जो उस वक्त गुट बनाकर बहुजन समाज पार्टी का साथ छोड़कर किसी का भी समर्थन कर सकते हैं। धुआंधार रैलियों और भावनाओं से दबाव बनाकर मौजूदा राजनीतिक स्थितियों में मायावती का लोकसभा की इतनी सीटें जीतकर लाना और दूसरों के लिए बसपा में दल बदल के लिए पर्याप्त संख्या जुटाना मुश्किल होगा? यूपीए के विश्वासमत के दौरान ऐसे अनेक प्रश्न और संभावनाएं उजागर हुईं। यह बात भी उल्लेखनीय महत्व रख रही है कि अब राजनीतिक निष्ठाएं और प्रतिबद्धताएं या राजनीति में नैतिक स्तर का कोई भी महत्व नहीं बचा है। रही नई पीढ़ी की बात तो उसके सामने केवल उपलब्धि हासिल करना ही एक मात्र लक्ष्य है वह चाहे जिस प्रकार से हासिल हो। यह स्थिति नई लोकसभा में सरकार के गठन में इस बार और ज्यादा देखने को मिलेगी।
बहुजन समाज पार्टी ने जिन बाहर के लोगों को बसपा में शामिल करके उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए हरी झंडी दी है उनमें कम से कम पचास प्रतिशत ऐसे चेहरे हैं जिनकी निष्ठा किसी भी कीमत पर मायावती या बसपा के साथ हो ही नहीं सकती और जिनका राजनीतिक इतिहास दल बदल और मौका परस्ती का रहा है। कांग्रेस से निकाले गए राजस्थान के नेता कुंवर नटवर सिंह, अखिलेश दास गुप्ता, सपा के नरेश अग्रवाल, शाहिद सिद्दकी और मुनव्वर हसन जैसे ऐसे कई नाम हैं जो बसपा में एक खास उद्देश्य के लिए दाखिल हुए हैं। इनके अलावा जो लोग लंबे समय से एक दल में रहने के बाद बसपा से जुड़े हैं वे बहक सकते हैं और बसपा में तोड़फोड़ के हीरो हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा में तीन बार बसपा ऐसे ही लोगों के कारण टूटी है। बसपा का उत्तर प्रदेश विधानसभा में जिस प्रकार से कई बार विभाजन हुआ उससे बसपा नेतृत्व ने मुकदमेबाजी करके थोड़ी बहुत ही राहत पाई है।
बसपा राजनीतिक रूप से अभी भी सर्वसमाज की पार्टी नहीं बन सकी है। बसपा की नीतियों पर दृष्टि डाली जाए तो बसपा कभी भी निष्ठावान नेताओं की पार्टी नहीं बन सकी है। यह वह चलती हुई ट्रेन के समान है, जिसमें आदमी चढ़ता है और अगले स्टेशन पर उतर जाता है। बसपा का परंपरागत वोट इस बात को लेकर संदेह में खड़ा है कि जो राजनीतिक अवसर उसे मिलने चाहिए थे वह भविष्य में उसे मिल पाएंगे कि नहीं। बसपा में गैर बसपाई शामिल होने के बाद यह आशंका बढ़ गई है कि अब दलित समाज में नई पीढ़ी की लीडरशिप आगे नहीं बढ़ पाएगी, क्योंकि जो अवसर बसपा के दलित समाज को मिलने थे वह अवसर अब उन लोगों को मिल रहे हैं जो कि दूसरे दलों से बसपा में आए। मायावती के रहते बसपा में ‌किसी दलित के नेता के रूप में उभरने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। मायावती ने रैली में और हाल के बयानों से भी अपने उत्‍तरा‌‌ध‌कारी के बारे में संशयात्‍मक स्थिति पैदा कर दी है। अब जिस द‌लित को नेतागिरी करनी है उसे केवल दूसरे दलों में ही यह अवसर मिल सकता है, इसलिए दलितों की नई पीढ़ी आने वाले समय में अपने राजनीतिक भविष्‍य के लिए ‌किसी नये नेतृत्‍व की तलाश कर सकती है। भारतीय राजनीति में बड़े-बड़े चमत्कार सामने आएं हैं और ऐसे न जाने कितने दिग्गज नेता और प्रधानमंत्री पद के ऐसे दावेदार अपनी तीव्र महत्वाकांक्षाओं के ही कारण राजनीति के हाशिए पर चले गए।
मायावती जिस प्रकार से देश की प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावली होकर बेमेल राजनीतिक समझौते कर रही हैं, अत्यंत गिरे हुए स्तर की बयानबाजी और राजनीतिक मामलों में अपने राजनीतिक विरोधियों पर अनाप-शनाप आरोप लगा रही हैं उससे उनकी विश्वसनीयता अब आगे गिरती ही जा रही है। उन्हें यह एहसास नहीं रहा है कि आगे के राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने में बहुत सारी अड़चने पेश आ सकती हैं। वामदलों के उकसाने में आकर उन्होंने समझ लिया कि वह प्रधानमंत्री हो गईं, लेकिन यह केवल क्षण भंगुर, अवसरवादी और साजिशों से युक्त एक खेल था जिसमें मायावती को आसमान में बैठाकर एक झटके में नीचे गिरा दिया गया, जिससे मायावती का उठना अब मु‌श्‍किल लगता है। भाजपा ने मायावती के साथ ऐसा कभी नहीं किया। उसने तो अपने को खोकर, मायावती को तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बनवाया, लेकिन जिस भाजपा ने लखनऊ में सरकारी स्टेट गैस्ट हाउस में मायावती की हत्या की साजिश को नाकाम कर उन्हें उसी वक्त प्रदेश की सत्ता के शिखर पर बैठाया, आज अपनी रैली में उसी भाजपा पर हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाकर मायावती ने सबको हैरत में डाल दिया। मायावती का जग जाहिर भ्रष्टाचार और उनके राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक एजेंडे इतने विवादास्पद होते जा रहे हैं कि उन्हें लोकसभा में समर्थन मिलना कोई आसान नहीं है।
भारत अकेले उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि पूरे देश में रहता है और मायावती को अकेला उत्तर प्रदेश प्रधानमंत्री नहीं बना सकता। कुछ ही दिन बाद प्रकाश करात ने भुवनेश्वर में बोल तो दिया कि अभी कोई प्रधानमंत्री नहीं। मायावती ने वाम नेता एबी वर्द्घन को फोन करके कह भी दिया कि आप धोखेबाज़ हैं। ऐसे ही राजनीतिक आक्रमण उनको प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में बड़ी बाधा हैं। अगर ऐसी स्थिति आती है कि बहुजन समाज पार्टी के सदस्यों के बिना देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी का फैसला होने में कोई कठिनाई आ रही है तो यह शर्त तुरंत अपना सर उठाएगी कि मायावती को छोड़कर बहुजन समाज पार्टी के किसी भी सांसद को लोकसभा में नेता चुन लिया जाए लेकिन मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन नहीं दिया जाएगा। नई लोकसभा मायावती के प्रधानमंत्री बनने के मुद्दे पर इसी तरह बंट सकती है जैसे यूपीए को विश्वासमत के मुद्दे पर बंट गई तब मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने का मुद्दा समाप्त हो सकता है। मायावती को प्रधानमंत्री बनने के लिए लोकसभा में दबाव बनाने के लिए कम से कम सौ सांसद ऐसे होने चाहिएं जो कि मायावती के पक्ष में चट्टान की तरह से खड़े हों। लेकिन मायावती के भ्रष्टाचरण, व्यवहार और उनकी अविश्वसनीयता को देखते हुए ऐसे सौ सांसदों का साथ खड़े होना मुश्किल ही लगता है। यह जरूर हो सकता है कि बसपा के जीतकर आए हुए सांसदों में ही बगावत के स्वर फूट पड़ें इसलिए यह संभावना कायम है कि मायावती को लोकसभा में प्रधानमंत्री बनने के दावे से फिर रोका जा सकता है।
मायावती के सांसदों की संख्या उसी प्रकार से बेअसर हो सकती है जिस प्रकार मौजूदा लोकसभा में मुलायम सिंह यादव के 38 सांसदों को चार साल तक किसी ने भी नहीं पूछा। मायावती के सामने अपने परंपरागत वोट को सहज कर रखने का भी एक बड़ा खतरा है यह खतरा इस कारण और ज्यादा बढ़ गया है क्योंकि काशीराम ने जिन नीतियों पर चलते हुए बहुजन समाज पार्टी खड़ी की थी मायावती उन नीतियों से लगभग दूर जा चुकी हैं और मायावती दूसरे नेताओं और दलों की तरह राजनीतिक जोड़ तोड़ पर उतर आई हैं। जो कि किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए लंबा राजनीतिक सफर नहीं बन सकता। यूपीए के विश्वासमत के दौरान मायावती ने देख लिया है कि उनका वामदलों ने सरकार के विरोध में संख्याबल बढ़ाने के लिए किस तरह से इस्तेमाल किया। उन्होंने अपना काम निकलने पर मायावती को किनारे कर दिया। अब मायावती को कांग्रेस, भाजपा, सपा और वामदलों में कौन प्रधानमंत्री बनवा सकता है, इसके लिए लोकसभा चुनाव की प्रतीक्षा करनी होगी।

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