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मध्यवर्गीय नैतिकता की कब्रगाह

अजित राय

'जॉन गाब्रिएल बार्कमैन' (1896) हेनरिक इब्सन का एक अलग किस्म का नाटक है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की निर्देशक अनुराधा कपूर ने दिल्ली इब्सन फेस्टिवल 2008 में इसे कमानी सभागार में प्रस्तुत किया। यह नाटक की पहली प्रस्तुति थी।
नाटक की शुरुआत और आखिर में एक ही वाक्य बोला जाता है- 'वह खान मजदूर का बेटा था, खुली हवा में जिंदा न रह सका।' मंच पर तरह-तरह की पार्श्व ध्वनि, प्रकाश एवं लोहे की जालीदार चौकोर खंभानुमा डिजाइन में प्रस्तुति बार-बार यथार्थवादी ढांचे को तोड़ प्रतीकात्मक शैली में आगे-आगे चलती रहती है। नायक की सीढ़ी पर चढ़ना और फ्रीज होकर स्मारक में बदल जाना एक पूरी सभ्यता का प्रतीक बनता है।
औद्योगिक क्रांति के बाद जो औद्योगिक पूंजीवादी सभ्यता विकसित हुई, नाटक उस दौर में नैतिकता का विमर्श खड़ा करता है। इस पूंजी ने उन्नीसवीं सदी में मध्यवर्गीय जीवन में जो रंग दिखाया, उससे सारी नैतिकता धरी की धरी रह गई। यह सदी एक तरह से मध्यवर्गीय नैतिकता की कब्रगाह बन गई और पैसे और लिप्सा की अंतहीन चाहत ने घुटने को जन्म दिया। यहां हम जोजेफ कोनरेड के उपन्‍यास 'हार्ट आफ डार्कनेस' को याद कर सकते हैं।
'जॉन गाब्रिएल बॉर्कमैन' 1850 के दशक में क्रिश्चियाना (ओस्लो) में घटी एक सच्ची घटना पर आधारित है। एक खान मजदूर का बेटा पैसे की हेराफेरी में जेल चला जाता है लेकिन अपनी चालाकी, तिकड़म और अपराध के बल पर अमीर बन जाता है। वह घर की ऊपरी मंजिल पर रहता है और अपनी पत्नी गनहील्ड बार्कमैन से पिछले आठ सालों से उसकी बातचीत बंद है। पत्नी की सारी उम्मीदें अपने इकलौते बेटे पर टिकी हैं जिसका वह इंतजार कर रही है। तभी उसकी जुड़वा बहन ईला अचानक आती है और दोनों में बहस चलने लगती है।
उसका बेटा एक आकर्षक महिला फेनी विल्टन के साथ आता है और घोषणा करता है कि वह अब घर छोड़कर जा रहा है। फेनी के साथ एक जवान लड़की फ्रीडा फोल्डल भी बार्कमैन के बेटे एरहर्ट के साथ चली जाती है। फेनी कहती है, 'जब इसका मन मुझसे भर जाएगा तो फ्रीडा दिल बहलाएगी। जब दोनों से जी भर जाएगा तो हम तीनों कहीं चले जाएंगे। अंतिम दृश्य में हम देखते हैं कि बर्फीले तूफान में गाब्रिएल बार्कमैन बाहर निकलकर चला जाता है और बर्फ में जम जाता है।
नाटक में पैसा, सत्ता, महत्वाकांक्षा, लालच और इच्छाओं पर सतत बहसें हैं। सारे चरित्र उन्नीसवीं सदी की नैतिकता से निकले हुए हैं और अपनी-अपनी घुटन से मुक्ति के लिए मानो 21वीं सदी में छलांग लगाते हैं। निर्देशिका ने मंच पर कुछ प्रतीकात्मक तो कुछ यथार्थवादी पर्यावरण रचा है। कई खिलंदड़ी देह गतियों का प्रयोग किया गया है। नायक जो लौहपुरुष की तरह है, किंतु बर्फ में जम जाता है। एक ऐसी मृत्यु, जिसे उसने खुद चुनी है। अंतिम दृश्य बेहद कल्पनाशील है। (जनसत्‍ता से साभार)

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