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हमारा प्रधानमंत्री और देश का प्रधानमंत्री

दिनेश शर्मा

संसद-parliament

नई दिल्ली।आतंकवाद राजनीतिक अस्थिरता और भारी मंदी से जूझते हुए भारत में हमारा प्रधानमंत्री कैसा हो और देश का प्रधानमंत्री कैसा हो के घमासान के साथ पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। राजनीतिक दलों में समर्थन देने और समर्थन हासिल करने की जोड़-तोड़, बनते और बिखरते रिश्‍तों, वादों और तकरारों के तनाव भरे समीकरणों के साथ उत्‍तर भारत ही फिर से राजनीति घमासान का केंद्र होने जा रहा है। यहां से कई राजनेता देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अपने दावे पेश कर चुके हैं। जहां तक राजनीतिक दलों के दावों और जनता में उनकी लोकप्रियता का प्रश्‍न है तो इस बार भी, कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो अकेले अपने दम पर लोकसभा में दो सौ तिहत्‍तर सदस्‍यों के सत्‍ता के आंकड़े को छू सके, इसलिए पंद्रहवीं लोकसभा भी राजनीतिक अस्‍थिरता का सामना करेगी और देश में सत्‍ता हासिल करने के लिए खड़े दो गठबंधनों यूपीए और एनडीए के बीच ही छीना-झपटी में सत्‍ता का हस्‍तांतरण होगा। केंद्र में इस समय कांग्रेस के नेतृत्‍व वाले यूपीए गठबंधन का शासन है। पूरे राजनीतिक परिदृश्‍य को देखते हुए लग रहा है कि सत्‍ता का यह इतिहास अपने को दोहराने जा रहा है।
वर्तमान में उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड, पंजाब, छत्‍तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश, बिहार जैसे उत्‍तर भारतीय राज्‍यों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं। सिर्फ दिल्‍ली-हरियाणा में कांग्रेस की स्‍पष्‍ट बहुमत की सरकार है। महाराष्‍ट्र, जम्‍मू-कश्‍मीर, गोवा, मणिपुर में सहयोगी दलों के साथ कांग्रेस सत्‍ता में है। भारतीय जनता पार्टी भी ऐसे ही कहीं स्‍पष्‍ट बहुमत में है तो वह कहीं क्षेत्रीय दलों के सहयोग से राज्‍यों की सत्‍ता में भागीदार है। यूपीए और एनडीए के बीच होने जा रहे इस सत्‍ता संघर्ष में पिछले एक साल में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। कई अवसर ऐसे आए जब लगा कि लोकसभा चुनाव समय से पहले ही हो जाएंगे। पिछले साल लोकसभा में पेश यूपीए के मनमोहक बजट ने ही गैर कांग्रेसी दलों में चुनाव की अफरा-तफरी पैदा कर दी थी, जिससे तभी से राजनीतिक दलों ने अपनी चुनाव तैयारियों को पूरे इंतजाम पर रखा हुआ है। अगर बीच-बीच में भारतीय राजनीति में अनपेक्षित उतार-चढ़ाव न आए होते तो समय से पूर्व ही लोकसभा चुनाव के कई बार आसार बने थे। चुनावी संभावनाओं के इंतजार में पूरा एक साल गुजर गया और अंततः लोकसभा चुनाव अपने समय पर ही हो रहे हैं।
कांग्रेस ने केवल 148 कांग्रेसी सांसदों के बल पर गठबंधन की राजनीति करते हुए देश में सत्‍ता का अपना कार्यकाल पूरा किया है। कांग्रेस के लिए यह काल खंड चालीस वर्षों के कांग्रेसी शासन से बिल्‍कुल भिन्‍न और भारी चुनौतियों वाला रहा है, जिसमें सर्वाधिक रोचक बात यह रही कि एक प्रसिद्घ अर्थशास्‍त्री मनमोहन सिंह के भारत के प्रधानमंत्री के पद पर होते हुए देश को अत्‍यंत खराब अर्थव्‍यवस्‍था और मंदी का सामना करना पड़ा है। प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा जैसे विषयों पर भी पूरे समय निराशा का ही वातावरण बना रहा। गठबंधन सरकार होने के दुष्‍परिणाम भी देश को रह-रह कर भोगने पड़े। खराब स्‍थितियों की जिम्‍मेदारी किसी ने भी अपने ऊपर नहीं ली। इसके लिए देश की जनता ही जिम्‍मेदार कहलाई जा रही है कि उसने विखंडित जनादेश क्‍यों दिया? इस सबके बावजूद इस बार भी यथा स्‍थिति दिख रही है। इसमें यूपीए ने अपनी सत्‍ता में वापसी की संभावनाओं को बरकरार रखा है। वह क्षेत्रीय दल चुनाव बाद अपने हश्र की चिंता में एक अवसाद में खड़े हैं, जिनके नेताओं ने अपने को भावी प्रधानमंत्री घोषित करके पूरे देश को सर पर उठा रखा है।
केंद्र में सरकार बनाने के लिए सांसदों की संख्‍या 273 चाहिए। आगामी सरकार के गठन की प्रबल दावेदार कांग्रेस के नेतृत्‍व वाले यूपीए को गठबंधन की राजनीति और मौजूदा हालात में यह आंकड़ा मुश्‍किल नहीं लगता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि एनडीए के भीतर भारी अंतरविरोध है। लालकृष्‍ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में स्‍वीकार करने मुद्दे पर भाजपा में विरोध के स्‍वर सुनाई दे रहे हैं। दुनिया की करीब बारह करोड़ वेबसाइटों पर अपने धुआंधार विज्ञापन प्रचार के बावजूद उनका प्रधानमंत्री का सपना पूरा होना संदेहजनक है। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी जैसे कई सहयोगी एनडीए से अलग हो चुके हैं। उसके पास कोई ऐसा एजेंडा नहीं है, जिस पर देश की जनता उत्‍सुकता से दांव लगाए। चुनाव में जातियों, क्षेत्रीय समीकरणों और नए परिसीमन में वोटर के मूड का पता लगाना एक तो यूं ही कठिन है, दूसरे जब मतदाताओं का एक भाग एक जिले से होता हुआ दूसरे जिले में जाकर रूकता हो तो तस्‍वीर और भी धुंधली हो जाती है, इसलिए इस बार यह कहना इतना आसान नहीं है कि कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है।
चुनाव में प्रमुख दलों की तैयारियों का जायजा लें तो पाएंगे कि उत्‍तर भारत में खासतौर से उत्‍तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की कोई उतनी अच्‍छी स्‍थित नहीं दिखाई देती। दोनों जगह सपा बसपा और राजग का ज्‍यादा प्रभाव दिखता है। अगर इन राज्‍यों में कांग्रेस और उसके जिला स्‍तर के नेता शुरू से ही जनता की समस्‍याओं से जुड़ते और केंद्र सरकार की जनकल्‍याण की योजनाओं का ठीक से लागू कराने एवं आम जनता की मुश्‍किलें हल करने की ओर ध्‍यान देते तो उत्‍तर प्रदेश और बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्‍यों में कांग्रेस की तस्‍वीर बहुत बेहतर बन सकती थी। कांग्रेस का बिहार तो लालू यादव से गठबंधन में ही खिसक गया है, फिर भी यह कांग्रेस का प्रबल राजयोग ही कहा जाएगा कि यूपीए के गठबंधन का उसे ही लाभ मिलता दिख रहा है। इस बार उत्‍तर भारत में बना लालू-मुलायम-कल्‍याण जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं का सशक्‍त गठजोड़ यूपीए का फिर से सत्‍ता का मार्ग प्रशस्‍त करता दिख रहा है। अगर किसी या किन्‍हीं को अब भी यह लग रहा हो कि यूपीए सरकार की और उसमें भी कांग्रेस की बड़ी उपलब्‍धियां हैं तो यह केवल गलतफहमी ही कही जाएगी।
मनमोहन सिंह ईमानदार प्रधानमंत्री जरूर माने जाते हैं, उन पर भ्रष्‍टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा। मगर वे आज भी राजनीतिज्ञ नहीं हो पाए। उनके एक सफल प्रधानमंत्री होने पर भी प्रश्‍नचिन्‍ह लगा है जो कि हमेशा लगा ही रहेगा। पांच साल उनकी सरकार ने बहुत अच्‍छा काम किया है, इस पर भी कई सवाल कायम हैं। सत्‍यम कंप्‍यूटर के राजू जैसे महा घोटालेबाज इनके दौर में भी खूब फले फूले। विकास की दर ठहर गई, मंदी ने भी तगड़ा झटका दिया। उद्योग धंधों पर मंदी की ऐसी गाज गिरी, जिसे मनमोहन सिंह रोक ही नहीं सके। आम जनता को सरकार के जनकल्‍याण के कार्यक्रमों का सीधा सुपरिणाम नहीं मिल पाया। आम व्‍यक्‍ति का दैनिक जीवन और ज्‍यादा कठिन ही हुआ है। आजादी के 60 वर्ष के काल में भारत की जनता अब अपने लिए किये कार्यों को कागज पर नहीं, व्‍यवहार में देखना चाहती है। विकास की हद कागजों और आंकड़ों में बढ़ती है, लेकिन जनता उसे अपनी जिंदगी में देखना चाहती है। किसी भी राष्‍ट्र के लिए दूरगामी योजनाएं आवश्‍यक होती हैं। मगर जनता अपनी तात्‍कालिक समस्‍याओं का हल भी चाहती है। खासतौर से जनजीवन की सुरक्षा के मामले पर वह सबसे ज्‍यादा चिंतित और संवेदनशील है और इस मुद्दे पर तो उसे कहीं से भी कोई आशा दिखाई ही नहीं पड़ती। राष्‍ट्र का भविष्‍य और आम जनता की तात्‍कालिक समस्‍याओं के हल की जिम्‍मेदारी सत्‍ता की होती है। इन दोनों के मध्‍य सामंजस्‍य बिठा पाना ही राजनीति कही जा सकती है। लेकिन यहां इसे लेकर अफसोस कायम है।
हमारा प्रधानमंत्री कैसा हो यह नारा तो सभी दलों के पास है, लेकिन देश का प्रधानमंत्री कैसा हो इस सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण और आसान से सवाल का उत्‍तर किसी के भी पास नहीं है। इन दलों के लिए इसका उत्‍तर भी चुनौती भरा मुद्दा है। भारत की नई पीढ़ी की सामाजिक शैक्षणिक आर्थिक प्रगति की तमन्‍ना का सम्‍मान करना और उसे वैसे अवसर प्रदान करने का वातावरण विकसित और स्‍थापित करना भी, किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं रहा है। इनके विकासशील चुनावी एजेंडे और गठबंधनों के आधार किसी से छिपे नही हैं। इनके नेता भय मुक्‍त समाज बनाने का दावा कर रहे हैं और खुद भारी भरकम सुरक्षा के भीतर चलकर अपनी सुरक्षा पर करोड़ों रुपए प्रतिमाह खर्च कर रहे हैं। उत्‍तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती को तो अपनी मौजूदा सुरक्षा से भी संतोष नहीं है, उन्‍हें तो देश की सर्वोच्‍च सुरक्षा एसपीजी चाहिए, जिसके लिए वे हर बार अपनी महारैलियों तक में गुहार लगा चुकी हैं। उनका दूसरा एजेंडा तो किसी से छिपा ही नहीं है। उन्‍होंने प्रधानमंत्री बनने के लिए जिस तरह समाज के लिए अत्‍यंत खतरनाक गुंडों और अपराधियों को लोकसभा चुनाव में उतारा है, इसकी किसी को कभी आशा नहीं रही होगी। तीसरे मोर्चे में प्रधानमंत्री पद के लालच में शामिल होने को कौन नहीं समझा? क्‍या तीसरा मोर्चा मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए बना है? अगर मायावती को यह विश्‍वास हो तो उनकी राजनीतिक अज्ञानता का इससे अच्‍छा प्रमाण और कहां मिलेगा? इनके अलावा और भी कई दावेदार हैं जो गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत ऐसे हाथों में कितना सुरक्षित रह पाएगा?
लगभग सभी राजनीतिक दलों में आपस में ही मतभेदों की खाई बहुत गहरी है, मसलन भाजपा में टिकटों के वितरण और चुनाव प्रबंधन को लेकर झगड़ा सड़क पर आ चुका है। भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह की कार्यशैली एवं लालकृष्‍ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने के दावे को लेकर गतिरोध एवं मतभेद हैं। राजनाथ सिंह पर सीधे अपने अहम में भाजपा को कमजोर करने का आरोप है, इससे कई बड़े नेता उनसे छिटक रहे हैं। उत्‍तर प्रदेश भाजपा के अपने अध्‍यक्षीय और मुख्‍यमंत्रित्‍व कार्यकाल में भाजपा का उत्‍तर प्रदेश से सफाया हुआ था जो आज तक जारी है। वे इस समय गुजरात के मुख्‍यमंत्री और भाजपा में प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जाने वाले नरेंद्र भाई मोदी को कमजोर करने की मु‌हिम पर ज्‍यादा हैं। दूसरे दलों के नेताओं की भी राय है कि अगर भाजपा, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के लिए पेश कर दे तो भाजपा को सरकार बनाने के लिए बाहर से किसी ‌की मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी। कोई चाहे कुछ भी कहे, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस समय नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद के लिए भारतीय उद्योग जगत और जनता की पहली पसंद बने हुए हैं। भाजपा नेतृत्‍व इस सच्‍चाई की जानबूझकर अनदेखी कर रहा है।
सपा को लीजिए तो वहां भी अमर सिंह को लेकर सपा नेताओं में कोई कम नाराजगी नहीं है। इनके कारण कई नेता मुलायम सिंह यादव से अलग हो चुके हैं। ऐसे कई हैं जो मुलायम ‌सिंह के अत्‍यंत विश्‍वासपात्र और अपने इलाके में ताकतवर थे। बेनी प्रसाद वर्मा तो बहुत ही खास थे और हमेशा यही कहा करते थे कि मुलायम मेरे नेता हैं मगर अमर सिंह के कारण आज मुलायम सिंह से अलग ही नहीं बल्‍कि विरोध में खड़े हुए हैं। आजम खां, ये भी अमर सिंह के ही शिकार माने जा रहे हैं। वे कल्‍याण सिंह के कारण नाराज नहीं हुए बताए जाते हैं, यह तो एक बहाना मात्र है। असली वजह अमर सिंह ही हैं जिनके कारण आज़म खां ने मुलायम सिंह यादव को अपने तेवर दिखाए हुए हैं। इनके कारण आज सपा में काफी उथल-पुथल है। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और उसके बहुत से नेताओं में यह धारणा है कि अमर सिंह के कारण सपा को भारी नुकसान हो रहा है। विधानसभा चुनाव में इन्‍हीं के कारण कई सीटों पर सपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा। अमर सिंह पर आरोप है कि उन्‍होने सपा के कई नेताओं का न केवल अपमान किया अपितु उन्‍हें मुलायम ‌सिंह यादव का साथ छोड़ने को मजबूर कर दिया, आज भी वैसी ही स्‍थिति है, जिसमें आज़म खां का मामला एक उदाहरण बना हुआ है। कहने वाले कह रहे हैं कि सपा और कांग्रेस की चुनावी दोस्‍ती कभी ‌की हो गई होती, अगर अमर सिंह इसमें अपनी टांग न अड़ाते। कांग्रेस के बहुत से नेता अमर सिंह से बात ही नहीं करना चाहते हैं। मुलायम ‌‌सिंह यादव की भूमिका अब बिगड़ी हुई बात को संभालने की ही रह गई है। आज सपा और कांग्रेस में जो भी दुआ सलाम है वह ‌सिर्फ मुलायम सिंह के सौहार्दपूर्ण व्‍यवहार के कारण है। फिर भी अमर ‌‌सिंह, मुलायम सिंह यादव के लिए महत्‍वपूर्ण बने हुए हैं।
कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की समस्‍या प्रकाश करात बने हुए हैं जो अपने ही अंदाज में पार्टी चलाना चाहते हैं। इन्‍हीं के कारण सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्‍गज वाम नेता ने खिन्‍न होकर पार्टी से तो रिश्‍ता तोड़ लिया अपितु राजनीति से भी सन्‍यास लेने की घोषणा कर दी। वामदलों के बीच में आज जो टकराव है उसका लाभ तृणमूल कांग्रेस की अध्‍यक्ष ममता बनर्जी उठा रही हैं। वाम नेता ज्‍योति बसु राजनीतिक परिदृश्‍य से बाहर हैं और सोमनाथ दा का मौजूदा नेताओं से कोई मतलब नहीं रहा है इसलिए बंगाल में वाममोर्चे की हालत बहुत खराब है। इसी का लाभ कांग्रेस उठा रही है। वामदलों में अपनी ताकत को लेकर भारी संशय है जिससे उनके नेताओं ने तीसरे मोर्चे का बीड़ा उठाया है मगर इसमें मायावती की मौजूदगी से इसका अस्‍तित्‍व रेत के समान है। दरअसल मायावती ऐसे मोर्चे में आकर अपने मतदाताओं में यह विश्‍वास पैदा करना चाहती हैं कि वास्‍तव में मै प्रधानमंत्री पद की दावेदार हूं। इससे उन्‍हें अपना मतदान प्रतिशत बढ़ाने में मदद तो मिलेगी ही साथ ही दलित वोटों की मदद से सांसद बनने के लालची भी उनके साथ आ जाएंगे। मगर मायावती के सपने को ग्रहण लग गया है। तीसरा मोर्चा ही उन्‍हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देगा इसलिए मायावती को उत्‍तर प्रदेश की अपनी सरकार को बचाने की युक्‍तियां अभी से खोजनी होंगी।
बसपा में सतीश चन्‍द्र मिश्रा को लेकर गतिरोध है। कुछ समय तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन अपने रिश्‍तेदारों और नातेदारों को खूब लाभ पहुंचवाकर सतीश मिश्रा का भांडा फूट गया। मायावती और अपने बीच क्‍लाइंट और मवक्‍किल के रिश्‍ते का इन्‍होंने अपने हिसाब से ब्राह्मणीकरण करके ऐसी दुकान चला रखी है जिसमें बगैर बांट के ही उत्‍तर प्रदेश और देश के सारे ब्राह्मण मायावती को तोल दिए। पिछले दिनों वे एक हेलीकाप्‍टर लेकर प्रदेश के ब्राह्मणों को भरमाने निकले और भदोही विधान सभा के उप चुनाव में ब्राह्मणों ने उनके हेलीकाप्‍टर में पंक्‍चर कर दिया। ब्राह्मण अब उनसे एवं बसपा से किनारा कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगे हैं कि ब्राह्मणों के नाम पर कुछ अवसरवादियों को भले ही कुछ मिला हो लेकिन मायावती इस समाज का विश्वास हासिल करने में विफल रहीं हैं। उन्होंने बाकि सर्वसमाज के नारे को भी अपने प्रचार-प्रसार के लिए ही इस्तेमाल किया है। वे वास्तव में सवर्ण समाज की घोर विरोधी हैं जिसका प्रमाण उनकी शासन प्रणाली है जिसमें भेदभाव का स्पष्ट प्रदर्शन दिखता है। सतीश चन्द्र मिश्रा यह जानते हैं मगर वे अपने लाभ के सामने अब कुछ बोलने की स्थिति में नही हैं। इस लोकसभा चुनाव में बसपा को ब्राह्मणों के रूख का पता चल जाएगा। 
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो उसमें भी कई ऐसे नेता हैं जो यदा-कदा अपने बयानों से कांग्रेस का ही खेल बिगाड़ते रहे हैं। अतीत में जाएं तो पाएंगे कि कांग्रेस ने जब से दूसरों की सरकारें बनवानी शुरू की हैं, तब से उसका पतन ही होता जा रहा है। उत्‍तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार को समर्थन और बाद में बनीं बसपा की मायावती की सरकार के भ्रष्‍टाचार के गंभीर मामलों पर चुप्‍पी साधकर कांग्रेस ने यूपी में अपना बंटाधार कर लिया जिससे उसे आज न मायावती से लाभ न मुलायम सिंह यादव से कोई फायदा और ना ही मुसलमानों का पहले जैसा समर्थन रहा। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस कहीं की नहीं छोड़ी। केरल में मुस्‍लिम लीग जैसी सांप्रदायिक शक्‍तियों के साथ मिलकर सरकार बनाकर और झारखंड, बंगाल दक्षिणी एवं पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में कांग्रेस राजनीति के बियाबान में ही खड़ी हुई है। उसे भाजपा की और ज्‍यादा मजबूती के लिए दुआएं करनी चाहिएं और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार नहीं बनाने के लिए भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए जिसके कारण केंद्र में कांग्रेस का राजयोग महफूज है। एक समय था जब छोटे-मोटे क्षेत्रीय दल कांग्रेस के दरवाजे पर खड़े रहा करते थे और आज कांग्रेस उनके सहयोग की मोहताज है। यदि कांग्रेस नीत यूपीए की केंद्र में सरकार न होती तो इस बार कांग्रेस का कोई अता-पता ही न होता।
उत्‍तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग के भाजपा के दिग्‍गज नेता रहे कल्‍याण सिंह को कुसुम राय के कारण भारी नुकसान उठाना पड़ा। अंदरूनी सच्‍चाईयां चाहे जितनी भी पवित्र हों, लेकिन बाहर का वातावरण इतना तनावपूर्ण रहा है कि आदमी मानता है कि कुसुम राय के सामने कल्‍याण सिंह ने अपनी राजनीतिक शक्‍ति ही दांव पर लगा दी और आज दूसरों की शरण में जाने की स्‍थिति में पहुंच गए। कुसुम राय को भाजपा की ओर से राज्‍यसभा में भेजने को कल्‍याण सिंह ने कितना बड़ा मुद्दा बनाया था यह तो हाल ही की बात है। एक समय ऐसा था कि कल्‍याण ‌सिंह भाजपा में न केवल और भी बड़े पदों के दावेदार हो गए थे अपितु उनके हाथ में बहुतों का राजनीतिक भविष्य बनाने और बिगाड़ने की ताकत थी। वे भाजपा में पिछड़ों के सिरमौर बन गए थे। वे अपने हिंदुत्‍व के चिरपरिचित तेवरों को न छोड़ पाने के कारण ही भाजपा में वापस हुए थे। उन्‍होंने फिर से भाजपा में न लौटने की कसम जरूर खाई है लेकिन यह भी सच है कि जिस दिन भी उनके मन में आरएसएस वाला हिंदू जाग गया, वे फिर से भाजपा में दिखाई देंगे। मध्‍य प्रदेश की नेता उमा भारती को ही देख लीजिए, उनका ‌हिंदुत्‍व और भाजपा प्रेम अक्‍सर प्रकट हो जाया करता है, जबकि उनकी अपनी पार्टी है जिसका घोषित तौर पर भाजपा से छत्‍तीस का आंकड़ा है।
यह तर्क हो सकता है कि जो काम करता है उसका विरोध होना स्‍वाभाविक है, किंतु इन नेताओं के उपनेताओं की स्‍थिति इतनी संदेहास्‍पद एवं विवादास्‍पद है कि यह तर्क इन नेताओं के साथ नहीं चल सकता है। इन्‍होंने तो अपनी महत्‍वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने ‌ही दलों और उनके नेताओं को ठिकाने लगा दिया है। कुल मिलाकर राजनीतिक दल अपने भीतर इस प्रकार के घमासान के साथ चुनाव मैदान में हैं। देश की जनता के सामने जो मुद्दे हैं वे इतने गंभीर हैं कि राजनीतिक दलों के चुनावी ऐजंडों मे उनका कोई तोड़ नज़र नहीं आता है। सभी की प्राथमिकता में प्रधानमंत्री की कुर्सी और उसके लिए जोड़-तोड़ का गणित फिट किया गया है। अपने कुकर्मों को बेशर्मी से नज़रंदाजसत्‍ता की मास्‍टर चाभी अपने पास रखने के लिए जो जोड़-तोड़ की जा रही हैं उनमें अब देखना है कि आगे और क्‍या गुल खिलते हैं।

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