हृदयनारायण दीक्षित
ऋग्वेदके समाज में वर्ण व्यवस्था नहीं है, जाति व्यवस्था तो कतई नहीं। ज्ञान पर सबका अधिकार है, उत्पादन के साधनों की प्रचुरता है, देव उपासना भी किसी एक खास समूह का अधिकार नहीं है। अग्नि की खोज विश्व सभ्यता के विकास में सबसे बड़ी क्रान्ति है। ऋषियों ने अग्नि को देवता जाना। अग्नि की स्तुतियां सभी जन करते हैं। (ऋ० १-३६-१९) अग्नि ने सभी जनों जनेभ्याः को प्रकाश देने के लिए सूर्य को आकाश में बैठाया। (१०-१५६-४) अश्विनी देव सभी जनों को सत्य का बोध कराते हैं। (५-६५-२) ऋग्वैदिक समाज की सभी देवशक्तियां सबकी है, सब उनसे जुड़े हुए हैं, सब उपासक हैं, कोई भेदभाव नहीं है। सम्पूर्ण सामाजिक आयतन में पांच जनों की खास चर्चा है, जन और भी हैं, उनका भी उल्लेख है लेकिन जोर पंचायतन पर है। आयतन शब्द विस्तार विशेष का पर्यायवाची होता है। संभव है कि परवर्ती काल में पंच आयतन ही पंचायत बना हो।
ऋग्वेद के एक रोचक और विराट देवता (या देवी) है अदिति। अदिति का विस्तार अनंत है, वे धरती अंतरिक्ष तक विस्तृत हैं। जो भूतकाल में हो गया और भविष्य में होगा वह सब अदिति है। लेकिन ऋषि पंचजनाः का विशेष उल्लेख करते हैं। (१-८९-१०) ये पांचजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र और निषाद नहीं है। वर्णव्यवस्था को सही ठहराने वाले कुछ विद्वानों ने पांचजनों का अर्थ यही बताया है पर ऋग्वेद के एक मन्त्र (१-१०८-८) में इन्द्र और अग्नि से प्रार्थना है कि यदि आप इस समय यदुओं, तुर्वसो, द्रह्युओं, अनुओं या पुरूवों के पास हों तो भी यहां पधारो। ऋग्वेद का विश्लेषण करने वाले दुनिया के अधिकांश विद्वान इन्हें ही पांच जन मानते हैं। ये पांच जन पांच वर्ण नहीं थे, जाति भी नहीं थे। मार्क्सवादी विचारक डॉ० रामविलास शर्मा ने भारतीय नवजागरण और यूरोप में लिखा है ये पांच जन वर्ण तथा निषाद नहीं है। निषाद शब्द एक बार भी ऋग्वेद में नहीं आया। जन शब्द का व्यवहार वर्ण के अर्थ में एक बार भी नहीं हुआ। पांच जन पांच प्रकार के लोग हैं, यह व्याख्या भी तर्क संगत नहीं है, जो पांचजन हैं वे पंचकृष्टि (१०-१७८-३) अथवा पंचकृष्टयाः (१०-११९-६) भी है। कृष्टि का सम्बंध कृषि से स्पष्ट है। राष्ट्रीय एकता की नींव ऋग्वेद के ऋषियों ने डाली थी। वे जितनी बार सप्तसिंधुओं को याद करते हैं, उससे अधिक बार वे पंचजनों को याद करते हैं और जन के अनेक पर्यायों के साथ याद करते है। जो जन हैं, वही कृष्टि हैं, वही चर्षणि हैं। (पृष्ठ ८७-८८)
ऋग्वेद पांच पंचो से भरापूरा है। वे पंचजनाः (१-८९-१०, व ३-३७-९) हैं। वे पंच मानुषा कहे गये हैं। (८-९-२) वे कम से कम तीन जगह पंच चार्षण्यः (५-८६-२, ७-१५-२ व ९-१०१-९) हैं। कृषि कार्य के कारण वे पंचकृष्टयाः है। (२-२-१०, ३-५३-१६ और ४-३८-१०) वे पंच क्षितियः भी है। (१-७-९, ५-३५-२ व १-१७६-३) वे पंच व्राता हैं। (९-१४-२) सबसे दिलचस्प है अश्विनी देवों का रथ। इसमें पांचों के लिए विस्तृत जगह है। (७-६९-२) एक मन्त्र में ऋषि की धन आकांक्षा मजेदार है, वह पांचों के पास उपलब्ध धन चाहता है। (८-९-२) इसी तरह दूसरे ऋषि की कामना है पांचों का तेज हमें देने की कृपा करें। (६-४६-७) इन्द्र का देवत्व श्रेष्ठतम है उनकी उपासना पांचजन्य है। (५-३२-११) महाभारत-गीता के श्रीकृष्ण के शंख का नाम भी पांचजन्य है। महाभारतकार के मनमस्तिष्क में वैदिक काल के पांच पंच-जन है। तुलसीदास के मन में भी पांच जन है। उन्होंने सीधी बात की पांच जनै मिलि कीजिए काजा/हारे जीते नाहिन लाजा।
सृष्टि प्रकृति में पंचमहाभूत हैं। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का मिलन एकक यह सृष्टि है। यह सृष्टि पंच-प्रपंच है। इसके पीछे की सत्ता को पंचपरमेश्वर कहा गया। वेद ऋग्वेद में अनेक देवता हैं। लेकिन विशिष्ट जन पांच हैं। पांचों के देव समान हैं, पांचों की स्तुतियां एक जैसी हैं। पांचों किसान है। पांचो के रस छन्द, काव्य एक जैसे हैं। पांचो का हर्ष, प्रीति विषाद, राग विराग एक जैसा है। पांचों की प्रिय नदियां भी एक जैसी है। पांचों धरती को माता और आकाश को पिता जानते है। पांचो के सामाजिक नेह-स्नेह एक जैसे है। पांचों सविता देव का तत्सुवितुर्वरेण्यं तेज धारण करना चाहते हैं। पांचों की दृष्टि दार्शनिक और तार्किक है। इसलिए पांचों एकं सद - एक सत्य के विश्वासी है। लेकिन ये पांच वस्तुतः पांच न होकर एक है। वे जब परिपूर्ण रूप में एक हैं तो पंच परमेश्वर है और जब रूप, गुण के कारण भिन्न है तब पंच है और तभी तक सारे प्रपंच हैं। इनके मन विमर्श और मन्त्र एक हैं। इनकी समितियां और सभाएं एक हैं। समानों मन्त्रः समिति समानी (ऋ० १०-१९१-३) विचार विमर्श के दौरान ये पंच है, पंचों का प्रीति मिलन ही पंचायत है। सतत् जिज्ञासा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किक दर्शन ही इस पंचायत का अधिष्ठान है। ऐसी पंचायत ने ही भारतीय संस्कृति का अधिष्ठान गढ़ा है। यहां कोई देवदूत नहीं है। कोई घोषणा नहीं है। बहस, तर्क, प्रतितर्क और विचार विमर्श ने भारतीय पंच-जन का वितान खड़ा किया है।
पांचजन भिन्न भिन्न समूह नहीं है। द्रष्टा ऋषियों ने प्रकृति की शक्तियों का विश्लेषण किया। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश को पंचमहाभूत जाना गया। यूनानी दर्शन सृष्टि में ४ तत्व ही मानता था। पांचवे आकाश को वे तत्व नहीं जान पाये। ऋषियों ने एक ही परमतत्व में ५ महाभूत देखे थे। उन्होंने मानव समाज में भी ५ जनों की दृष्टि अपनाई। बेशक इनकी सामूहिक पहचान भी बनी। लेकिन वैदिक द्रष्टा ऋषियों ने संभवतः पंच महाभूतों से पांचजन्य दृष्टि अपनाई। विचार विमर्श का केन्द्र और संगठन पंचायत कहलाया। पंचायत की यह संस्कृति लगातार चली। श्री रामराजा थे लेकिन उनका राजकाज भी पंचायत विमर्श से ही चला। महाभारत सभा भवन, विचार विमर्श और बहस संवादों के उल्लेख से भरी पूरी है। पंच परम्परा ही भारत के मन, प्राण और अस्मिता की मौलिक ऊर्जा है। पंचजनो के समूह की एक संज्ञा ग्राम भी है। ऋग्वेद में नदी पार करने वाले समूह को ग्राम कहा गया है। (३-३३-११) इस समूह के निवास की भूमि को भी ग्राम की संज्ञा मिली। सविता देव से प्रार्थना है आप हमारे पास वैसे ही आयें जैसे गांए ग्राम की ओर जाती हैं - गाव इव ग्राममं। (१०-१४९-४) वैदिककाल के गांव नेहस्नेह और विवाह व्यवस्था से भरेपूरे हैं। ग्राम का साझा मानस ग्राम पंचायत है। महात्मा गांधी ने १९०९ में हिन्द स्वराज लिखी थी। किताब के अन्त में कई पुस्तकों की सूची है। हेनरी मेन की लिखी एक किताब विलेज कम्युनिटीज का नाम भी इस सूची में है। मेन ने भारतीय ग्राम पंचायतों को जर्मनी के मार्क ग्राम समूहों से भी ज्यादा सुव्यवस्थित बताया था, जब ऐंग्लो सेक्सन जातियों को प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों का ज्ञान हुआ उसके बहुत पहले से भारत चुनाव के अधिकारों से परिचित रहा है। मेने के अनुसार टूयूटानिक मार्क (जर्मनी के ग्राम समाज) पर जब तक शुद्ध शास्त्रीय रोमन स्वरूप की कलम नहीं लगा दी गयी तब तक वह उतना सुसंगठित नहीं या तात्विक रूप से उतना प्रातिनिधिक नहीं था, जितनी कि भारतीय ग्राम पंचायते थी। रोम ने ही जर्मनी के ग्राम समाजों में बदलाव की पहल की लेकिन मेन के अनुसार भारतीय ग्राम समाज आर्थिक रूपसे आत्मनिर्भर थे। लेकिन भारतीय ग्राम समाज जड़ या रूढि़ इकाई नहीं थे।
महात्मा गांधी ने प्राचीन भारतीय ग्राम समाजों की परम्परा को ही आगे बढ़ाने की कल्पना की थी। वे प्रत्येक गांव को आत्मनिर्भर स्वयंपूर्ण इकाई बनाना चाहते थे। पं० जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी में इस प्रश्न पर मतभेद थे। भारत की संविधान सभा में ग्राम पंचायतों को मूलभूत आत्मनिर्भर बनाने पर बहस चली। लेकिन पंचायतों को संवैधानिक दर्जा नहीं मिला। इन्हें नीतनिर्देशक तत्वों वाले अध्याय में जगह मिली। पंचायतों को राज्यों की टुटपुंजिया इकाई बनाया गया। राज्यों ने पंचायतों के चुनाव १४-१५ साल तक भी नहीं कराये। राजीव गांधी के समय संविधान का ७३वां व ७४वां संशोधन हुआ। पंचायती व्यवस्था को संविधान में सम्मानजनक जगह मिली। लेकिन घटिया राजनीति यहां भी घुस आई। सामंतबल, बाहुबल, धनबल और जातिबल ने पंचायती राज संस्थाओं को हथिया लिया। ब्लाक प्रमुख के चुनाव में क्षेत्र पंचायत सदस्यों की खरीद होती है और जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में जिला पंचायत सदस्यों की। ग्राम प्रधानी के चुनाव में सारे हथकंडे चलते हैं। ग्राम पंचायते अधमरी हैं। यहां घोर भ्रष्टाचार है। लोकशक्ति का जागरण ही इस तस्वीर को बदल सकता है। स्थिति निराशाजनक है, लेकिन संकल्पवान न आशावादी होना ही अच्छा है।