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सुरक्षा को स्वयं चुनौती देतीं ये सरकारें

लिमटी खरे

नई दिल्ली। वाराणसी में प्राचीन दशाश्वमेघ घाट के बराबर में शीतला घाट पर महा आरती के दौरान बम धमाके ने कुछ समय से चली आ रही खामोशी को तोड़ दिया है। बनारस में जो कुछ भी हुआ वह इस बात को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है कि आमजन की सुरक्षा के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारें कितनी संजीदा हैं। चौबीस सितंबर को जब अयोध्या का फैसला आया तब समूचे देश में रेड अलर्ट था और सुरक्षा एजेंसियों की चाक चौबंद कवायद के चलते सब कुछ शांति से बीत गया। छह दिसंबर को भी पुलिस ने पूरी मुस्तैदी दिखाई। इसके बाद सुरक्षा एजेंसियां पूरी तरह बेफिक्र हो गईं। पिछले पांच साल में काशी पर यह चौथा हमला है। पांच बरस में तीन बार अगर कोई नराधम आकर इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे जाए तो समझ लेना चाहिए कि खामी सुरक्षा तंत्र में ही है। सरकार इस बात को लेकर संतोष जता सकती है कि इसमें मरने वालों की तादाद ज्यादा नहीं है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस परिवार का एक भी सदस्य इस प्रकार जाता है उसकी दुनिया का क्या हाल होता होगा।
बनारस ने बहुत धैर्य से काम लिया है जिससे साम्प्रदायिक वैमनस्यता नहीं फैल सकी, वरना आतंकवादियों का तो यही प्रयास है कि हिंदू-मुसलमान आपस में रक्त रंजित होते रहें। इस दुस्साहस के लिए इस बार भी मंगलवार का दिन चुना गया। सनातनपंथियों में मंगलवार का विशेष महत्व होता है। इसके पहले बनारस में 7 मार्च 2006 मंगलवार और जयपुर में 13 मई 2008 मंगलवार को हनुमान मंदिर में धमाके हुए थे। वैसे भी इस तरह की वारदातों को जब भी अंजाम दिया गया है, इतिहास साक्षी है कि मंगलवार को मंदिर, जुम्मे के दिन मस्जिद और शनिवार को बाजारों को अपना निशाना बनाया गया है। हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर की दरगाह, दिल्ली की जामा मस्जिद, मालेगांव की नूरानी मस्जिद में आतंकवादियों ने हमले के लिए शुक्रवार का दिन चुना था। इसी प्रकार पुणे की जर्मन बेकरी, दिल्ली के पहाड़गंज, महरोली, सरोजनी नगर मार्केट आदि में हुए धमाकों का दिन शनिवार रहा।
इन हमलों से स्थानीय प्रशासन के सुरक्षा उपायों के प्रति विश्वास काफी कमजोर हो गया है। आम जनता को लगने लगा है कि प्रशासन उसके अमन चैन के प्रति बहुत ज्यादा फिकरमंद नहीं है। गृहमंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम खुद भी बनारस में शीतला घाट घटनास्थल पर गए जिससे इस मामले में केंद्र की गंभीरता उजागर होती है। वहां चिदम्बरम के बयानों से सभी का ध्यान आतंकवाद के बजाए केंद्र और राज्य के बीच चल रही आरोपबाजी की ओर चला गया। इस तरह राज्य सरकार की नाकामियां उजागर नहीं हो सकीं। ठीक है कि भारत सरकार ने इस हमले के प्रति राज्य सरकार को सचेत कर दिया था लेकिन कौन जिम्मेदार के प्रश्न पर इतनी लड़ाई छिड़ गई कि अब तक कयास ही लगाए जा रहे हैं कि इसके पीछे कौन हैं। उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र के बीच बहस को निंदनीय ही कहा जाएगा। दोनों ही सरकारें एक दूसरे को कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूक रही हैं। राज्य और केंद्र के बीच समन्वय का अभाव साफ दिखाई पड़ रहा है। मीडिया को दोनों ओर से आरोप परोसे जा रहे हैं। निश्चित रूप से इसका लाभ आतंकवादियों और विघटनकारियों को ही मिलना है।
कितने आश्चर्य की बात है कि आतंक के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने का आह्वान करने वाले जनसेवक जब सत्ता की मलाई चखते हैं तब वे आतंक के खिलाफ एकजुटता का प्रदर्शन करने के बजाए एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में व्यस्त रहते हैं। पुलिस व्यवस्था का जहां तक प्रश्न है तो वह भी पूरी तरह से भ्रमित है। पुलिस हो या अर्धसैनिक बल, इन सभी के लिए अलग-अलग पैमाने गढ़े गए हैं। जवान चाहे सीमा पर लड़ते हों या फिर देश के अंदर आतंकवादियों और अलगाववादियों से मोर्चा लेते हों राजनीतिक समझौतों और लड़ाईयों के कारण इन्हें ही सबसे ज्यादा जान का और जनता को जान-माल का नुकसान उठाना होता है। गुप्तचर सेवाओं का तो और भी बुरा हाल है उनमें ताल-मेल का अभाव है तो समय पूर्व सटीक सूचनाओं का भी अभाव है। यदि अभिसूचना विभाग पर खर्च का हिसाब देखा जाए तो सुनकर होश उड़ जाएंगे कि यह विभाग गुप्त सूचनाओं के नाम पर कितना बड़ा धन खर्च करता है। भारत की न्यायिक व्यवस्था में आतंकवादियों को सजा दिलवाने में भी काफी लंबा अरसा लग रहा है। इस तरफ यदि ध्यान नहीं दिया गया तो आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर और सीमा सुरक्षा अप्रासंगिक होकर रह जाएगी।

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