प्रवीन कुमार भट्ट
देहरादून। महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया केद्रींय कानून उत्तराखंड में मज़ाक बनकर रह गया है। सच पूछिए तो यह कानून भी 'सरकार की हिंसा' का शिकार हो रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार, कानून में लिखित प्रावधानों को लागू करने के बजाय न्यायालय को ही गुमराह कर रही है। घरेलू हिंसा रोकने के लिए बना महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 पूरे देश के साथ ही उत्तराखंड में भी 2005 में लागू हो गया था। इस अवधि में राज्य में तीन मुख्यमंत्री बदल गये हैं लेकिन किसी ने भी महिलाओं के संरक्षण और उसे घरेलू हिंसा से बचाने के लिए बनाये गये कानून को सही तरीके से लागू करने की कारगर पहल नहीं की।
अधिनियम में उल्लेख है कि प्रत्येक जिले में महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करने और हिंसा होने की स्थिति में मामला दर्ज करवाने एवं महिलाओं को कानूनी संरक्षण देने के लिए एक अलग से संरक्षण अधिकारी की नियुक्ति की जायेगी। इतना ही नहीं कानून में सरकारों को निर्देशित किया गया है कि इस अधिनियम का व्यापक प्रचार प्रसार मीडिया माध्यमों के जरिये किया जाये। लेकिन पांच साल बीत जाने के बाद भी न तो उत्तराखंड सरकार जिलों में अलग से संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति कर पाई है और नाही इस अधिनियम के प्रचार के लिए कोई कदम उठाये गये हैं। सरकार अपनी दूसरी उपलब्धियों के विज्ञापन प्रतिदिन अखबारों में प्रकाशित करवाती है लेकिन इस अधिनियम की जानकारी के लिए आज तक कोई विज्ञापन दिखाई नहीं दिया।
अधिनियम के व्यापक प्रचार-प्रसार और अलग से संरक्षण नियुक्ति के लिए उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गयी है। अक्टूबर 2008 में उत्तराखंड महिला मंच ने दायर याचिका में मांग की कि सभी जिलों में अलग से संरक्षण अधिकारी नियुक्त किये जाएं और अधिनियम का व्यापक प्रचार-प्रसार हो। इस याचिका पर अभी कोई फैसला नहीं आया है लेकिन न्यायालय दो बार सरकार और याचिकाकर्ताओं का पक्ष सुन चुका है। याचिकाकर्ता कमल नेगी और उमा भट्ट ने बताया कि इस मामले में सरकार कोर्ट को भी गुमराह कर रही है। इस क्षेत्र में एनजीओ के प्रयासों को सरकार कोर्ट में अपनी उपलब्धि गिना रही है, जबकि हकीकत यह है कि इस कानून के तहत वर्ष 2009-10 में एक रूपया भी सरकार की ओर से खर्च नहीं किया गया।
असल में राज्य में कार्यक्रम अधिकारियों, समाज कल्याण अधिकारियों और यहां तक कि वित्त विभाग और सहकारिता विभाग के अधिकारियों को महिला संरक्षण अधिकारी की जिम्मेदारी दी गयी है। इस अतिरिक्त जिम्मेदारी को वे कितनी गंभीरता से लेते होंगे यह अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्हें न तो महिलाओं से जुड़े मामलों की जानकारी है और न उनके पास ऐसे मामलों के लिए समय है क्योंकि वे पहले से अपने विभाग को देख रहे हैं। इस अधिनियम को ठीक से लागू करने के लिए ऐसे अधिकारियों की आवश्यकता है जो किसी भी समय आवश्यकता पड़ने पर जरूरतमंद महिला के साथ खड़े होने के लिए तैयार रहें। मगर मौजूदा व्यवस्था के चलते पीड़ित महिलाओं को संरक्षण और न्याय कैसे मिलेगा?